कब और कैसे हुई थी तबले की उत्पत्ति? जानिए जाकिर हुसैन का क्या था कहना

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नई दिल्ली : तबले की उत्पत्ति को लेकर कई कहानियां हैं। इस वाद्य यंत्र की उत्पत्ति को लेकर लोगों के अलग-अलग मत हैं। तबला भारतीय संगीत का अनमोल हिस्सा है। इस वाद्य यंत्र की धुनें हर हर प्रस्तुति को जीवंत बना देती हैं।

तबले की उत्पत्ति को लेकर कई कहानियां हैं। इस वाद्य यंत्र की उत्पत्ति को लेकर लोगों के अलग-अलग मत हैं। तबला भारतीय संगीत का अनमोल हिस्सा है। इस वाद्य यंत्र की धुनें हर प्रस्तुति को जीवंत बना देती हैं। महान कलाकारों ने तबला को दुनियाभर में पहचान दिलाई है। तबला वाद्य पर बजने वाले मूलत: 10 वर्ण माने जाते हैं। इनमें छह वर्ण दाहिने तबले पर तथा दो वर्ण बायें तबले या डगे पर स्वतंत्र रूप से बजाए जाते हैं, तो वहीं दो वर्णों को संयुक्त वर्ण माना जाता है। हम आपको अपनी इस खबर में तबले के बारे में अनसुनी कहानियों के बारे में बताएंगे।

लकड़ी, धातु और चमड़े से बने तबले की उत्पत्ति को लेकर एक कहानी बेहद प्रचलित है। इस कहानी के मुताबिक, हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत प्रस्तुति में मुख्य वाद्य यंत्र तबला की उत्पत्ति बेहद रोचक है। दरअसल, 18वीं शताब्दी में मुगल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीला के दरबार में पखावज वादकों की प्रतियोगिता रखी गई। इसमें हार जाने के बाद एक वादक ने गुस्से में अपने पखावज को तोड़ दिया। इसके टूटे हुए दो हिस्सों को ऐसे बजाया गया कि वह आज के तबले जैसा लगने लगा।

प्रचलित कहानी के मुताबिक, पखावज के दो हिस्सों को बजाते समय लोगों ने कहा कि तब भी बोला, जो धीरे-धीरे तब्बोला और फिर तबला बन गया। हालांकि, इस कहानी को प्रमाणित नहीं माना जाता है। कई लोगों द्वारा तबले का श्रेय अमीर खुसरो खान नामक ढोलकिया को दिया जाता है। माना जाता है कि अमीर खुसरो को ‘ख्याल’ संगीत शैली के लिए एक मधुर और परिष्कृत ताल वाद्य बनाने का काम सौंपा गया था। इसी प्रयास का परिणाम तबला हो सकता है।

‘कई हजार सालों से है तबले का अस्तित्व’

हालांकि, जाकिर हुसैन मानते थे कि तबला का अस्तित्व कई हजार सालों से है। तबले की उत्पत्ति को जानने के लिए उन्होंने संस्कृत ग्रंथों को पढ़ा था। ग्रंथों को पढ़ने के बाद वह यह जानकर हैरान रह गए कि कई हजार सालों से तबला अस्तित्व में है। उनका तर्क था कि अगर तबला 18वीं शताब्दी में अस्तित्व में आया होता, तो सनातनी देवी-देवताओं के नाम पर परन का निर्माण नहीं हुआ होता। गणेश परन, सरस्वती परन, शिव परन, ये सभी परन संस्कृत ग्रंथों में उल्लेख को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त हैं। जाकिर हुसैन ने बताया था कि भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में उल्लेख है कि तबले का विकास पुष्कर नाम के वाद्ययंत्र से हुआ था।

”हम तालयोगी हैं, गणेश जी हमारे कुलदेव हैं”

एक बार उन्होंने कहा था कि हम तालयोगी हैं, गणेश जी हमारे कुलदेव हैं। उस्ताद जाकिर हुसैन तबले को हमेशा आम लोगों से जोड़ने की कोशिश करते थे। यही वजह थी कि शास्त्रीय विधा में प्रस्तुतियों के दौरान बीच-बीच में वे अपने तबले से कभी डमरू, कभी शंख तो कभी बारिश की बूंदों जैसी अलग-अलग तरह की ध्वनियां निकालकर सुनाते थे। वे कहते थे कि शिवजी के डमरू से कैलाश पर्वत से जो शब्द निकले थे, गणेश जी ने वही शब्द लेकर उन्हें ताल की जुबान में बांधा। हम सब तालवादक, तालयोगी या तालसेवक उन्हीं शब्दों को अपने वाद्य पर बजाते हैं। गणेश जी हमारे कुलदेव हैं। उनका यह वीडियो खूब वायरल हुआ था।

तबला को शुरुआत में सिर्फ संगीत के लिए इस्तेमाल किया जाता था। लेकिन पंडित समता प्रसाद, पंडित किशन महाराज और उस्ताद अल्ला रक्खा खान जैसे महान कलाकारों ने इसे मुख्य वाद्य के रूप में पहचान दिलाई। वर्तमान समय में तबला भारतीय संगीत का एक अभिन्न हिस्सा है।

जाकिर हुसैन ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दिलाई पहचान

जाकिर हुसैन ने तबले को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई। उन्होंने जॉन मैकलॉघलिन, यो-यो मा और बीटल्स के जॉर्ज हैरिसन जैसे पश्चिमी कलाकारों के साथ शान प्रदर्शन किया और तबले की ध्वनि को दुनिया के मंच पर पहुंचाया। हाल ही में मशहूर तबलावादक जाकिर हुसैन ने दुनिया को अलविदा कह दिया। उन्होंने 73 साल की उम्र में अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को में आखिरी सांस ली।

तबले की परंपरा में कई घराने बने, जिनमें दिल्ली, बनारस, लखनऊ, फर्रुखाबाद और पंजाब। घराने तबले की शैली और तकनीक को परिभाषित करते हैं। 20वीं सदी में आधुनिक तबला वादकों ने इन परंपराओं को आगे बढ़ाया और नई ऊंचाइयों तक पहुंचाने का काम किया।