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बसंती और वीरू की रामगढ़ स्टेशन से आगे की कहानी, मजाक नहीं फिल्म ही ऐसी…

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नई दिल्ली : चूंकि ये कहानी पूरी फिल्मी है लिहाजा अपन भी सिरा वहीं से पकड़ते हैं, जहां से फिल्म के हीरो बंदा सिंह न पकड़ा। ‘शोले’ ताजा ताजा रिलीज हुई है। बंदा कपड़े ऐसे पहनता है कि उसका लंगोटिया यार भी समझ नहीं पाता कि वो जय बना है या वीरू। सो सीधे सवाल पूछता है, ‘तो आज क्या, जय या वीरू?’ रमेश सिप्पी निर्देशित 1975 में रिलीज फिल्म ‘शोले’ में अमिताभ बच्चन और धर्मेंद्र के किरदार जय और वीरू शर्ट के साथ जैकेट और जीन्स पहनते हैं। बंदा का कॉस्ट्यूम भी वही है। उसकी ‘बसंती’ भी हट्टी कट्टी है, ठीक ‘शोले’ की बसंती जैसी। लड़का पीछा कर रहा है। लड़की मजे ले रही है। और, बस इस ‘स्टाकिंग’ से ही मामला बन जाता है। दोनों मिलते हैं। कट टू – साल 1980। बंदा और उसकी बंदी अब पांच साल की बच्ची के माता पिता हैं। यूं लगता है कि ‘शोले’ में ट्रेन में चढ़े वीरू और बंसती सीधे पंजाब के इसी गांव आकर उतरे।

खैर, अगर आपको लग रहा है कि ये मैं किसी कॉमेडी फिल्म की समीक्षा लिखने बैठ गया हूं तो माफ करें फिल्म बनाने वालों का एक कॉमेडी फिल्म बनाने का घोषित इरादा नहीं है। वह एक बहुत ही गंभीर फिल्म बनाने निकले हैं। कालखंड तब का है जब कश्मीर की तरह पंजाब से भी हिंदू भगाए जा रहे थे। पुलिस बेबस थी। और हो भी क्यों न, उसके पास एक बार लोड करने पर एक गोली दागने वाली थ्री नॉट थ्री राइफल हैं, और उग्रवादियों के पास एके 30। एके 47 के सीन में आने में अभी वक्त है। पंजाब में उग्रवाद का जोर है। उग्रवादी पोस्टर भी गुरुमुखी की बजाय हिंदी में लगा रहे हैं। बाकायदा देवनागरी में। हां, मात्राएं थोड़ी इधर उधर हैं लेकिन पंजाब में हिंदी में पोस्टर लग रहे हैं और वह भी उग्रवादियों की तरफ से, ये भी कम बड़ी बात नहीं है।

फिल्म कहने को पंजाब में रह रहे एक हिंदू बंदा सिंह की कहानी कहने निकलती है। उसका दोस्त सरदार है। सरदार भी ऐसा कि गांव मे रहकर भी शुद्ध खड़ी बोली वाली हिंदी में बात कर सकता है। बीवी उसकी पहरेदारनी है। शादीशुदा और एक बच्चे के बाप बन चुके बंदा को अपनी घरवाली को मौका मिलते ही गले लगा लेने की आदत है। घरवाली एक दो बार तो कंधा टिकाकर ही काम चला लेती है और फिर दौर वह भी आता है कि बंदा सिर्फ बंदी के हाथ थामकर ही रह जाता है। शायद उसे याद आ जाता है कि ये किरदार मेहेर विज कर रही हैं, जिनके शौहर मानव विज की कद काठी तो सबको याद है। भाई भी मेहेर के कम नहीं हैं। पीयूष सहदेव और गिरीश सहदेव की ये बहन अपने अलग स्टारडम में हैं। फिल्म की कहानी के मुताबिक उसने पंजाबन होते हुए भी एक हिंदू से शादी की है और इसी के चलते उसका भाई भी हिंदुओं का कत्लेआम करने निकले उग्रवादियों के साथ खड़ा नजर आता है।

बंदा सिंह चौधरी के किरदार में अरशद वारसी को देखना ऐसा ही है जैसे अरशद से अरशद पर अरशद लिखना! भाई किसी भी एंगल से बंदा सिंह नहीं लगता। वह शुरू से आखिर तक अरशद वारसी ही लगता है। पुलिस का कहना भर होता है कि भाई अपनी लड़ाई खुद लड़ो कि महाभारत में अर्जुन को मिले गीता ज्ञान से लेकर गुरुद्वारे में अन्याय से लड़ने तक का ज्ञान देने वाले उसके सामने प्रकट हो जाते हैं। फ्लैशबैक में आता है कि बंदे ने तो कलम पकड़ने से पहले ही थ्री नॉट थ्री पकड़ ली थी। भगत सिंह की फोटो भी बीच में आती है कि भाई, वहां से है जहां बच्चे बंदूकों की खेती करने के ख्वाब पालते रहे हैं। गोला, बारूद का इस्तेमाल करना भी उसने बचपन में ही सीखा होगा, क्योंकि कहानी में और कहीं तो उसे इसकी ट्रेनिंग लेते दिखाया नहीं।

खैर, अरशद वारसी को साउथ अभिनेता प्रभास अगर फिल्म ‘कल्कि 2898 एडी’ में जोकर लगे तो यहां वह ताश के पूरे बावन पत्ते हैं। पता ही नहीं चलता कि किस सीन में वह कौन सा पत्ता खेलेंगे और उनके पास तुरुप का पत्ता क्या है? अपने बयान से सुर्खियां बनाने वाले अरशद की इस हफ्ते दो फिल्में मुंबई में लोगों ने देखीं। मामी फिल्म फेस्टिवल में ‘घमासान’ देखने वालों की ये राय फिल्म ‘बंदा सिंह चौधरी’ देखकर और पक्की हो गई कि प्रभास पर अरशद का निशाना सिर्फ विवाद खड़ा करके सुर्खियां बटोरना ही था। क्योंकि, ये दोनों फिल्में देखकर उनके अभिनय की तारीफ में तो कहीं कुछ छपने से रहा। उनके अभिनय की पहचान रही लचक उनके शरीर से जा चुकी है। सोलो हीरो वाली फिल्में करने की कोशिशें अरशद ‘सहर’के दौर से करते आ रहे हैं। ‘सहर’ एक कमाल फिल्म थी। चली नहीं चली वो अलग बात है। ‘बंदा सिंह चौधरी’ तो बिल्कुल नहीं चलने वाली, और फिल्म भी ये बहुत बोरिंग है।