नई दिल्ली : नेटफ्लिक्स पर ही रिलीज डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘द सोशल डिलेमा’ जिन लोगों ने देख ली है, उन्हें सोशल मीडिया का खेल समझ आने लगा है। हमारे जीवन को अपने नियंत्रण में लेती जा रही इंटरनेट की आभासी दुनिया जान भी ले सकती है, ये भी देर-सबेर लोगों को समझ आ ही जाएगा। बिना घंटे, दो घंटे रील्स देखे अगर आपको नींद नहीं आती है तो ये फिल्म आपके लिए हैं। अगर आपके मोबाइल का इंटरनेट ऑन है और आप किसी से घर के लिए नया सोफा खरीदने की बात कर रहे हैं, तो जैसे ही आप मोबाइल उठाकर स्क्रॉल करना शुरू करेंगे, पहला विज्ञापन किसी फर्नीचर कंपनी का ही आएगा। तकरीबन हर मोबाइल यूजर ने कहीं न कहीं, किसी न किसी एप या किसी वेब साइट पर अपनी कॉन्टैक्ट लिस्ट, अपने मोबाइल माइक और अपने कैमरे का नियंत्रण ‘अदृश्य शक्तियों’ को सौंप रखा है। फिल्म ‘कंट्रोल’ ये समझाने वाली फिल्म है कि कैसे ये अदृश्य शक्तियां एआई की मदद से आपका जीवन तबाह कर सकती हैं।
इंटरनेट पर हैं तो ‘सेफ’ नहीं हैं
ये बात तो अब ज्यादा नई नहीं रही कि मोबाइल पर इस्तेमाल होने वाले मैसेंजर्स अगर आप लैपटॉप पर इस्तेमाल कर रहे हैं तो जिस एडमिन के पास आपके दफ्तर के नेटवर्क का कंट्रोल है, वह पूरे दफ्तर में किसी के भी लैपटॉप पर अपनी केबिन में बैठे बैठे कोई भी मैसेज डाल सकता है। आपकी ईमेल एक्सेस करके किसी को भी मेल कर सकता है। आपके व्हाट्सऐप पर आपके मित्रों से चैट कर सकता है और….! और, अगर वह आपका दुश्मन हुआ तो आपके डिजिटल फुटप्रिंट पर ऐसी ऐसी बातें और सबूत छोड़ सकता है जिसके बूते आपको संगीन अपराधों का साजिशकर्ता और गुनहगार साबित किया जा सकता है। फिल्म ‘कंट्रोल’ दूसरों के हाथों में जा रहे इसी नियंत्रण की कहानी है। कहानी का कहने का तरीका हिंदी फिल्म दर्शकों के लिए नया हो सकता है लेकिन स्क्रीनलाइफ पर बनी फिल्में मसलन ‘अनफ्रेंडेड’, ‘होस्ट’, ‘सर्चिंग’ आदि देख चुके दर्शकों को इसमें चौंकाने वाली कहानी की तलाश जरूर रहेगी।
सिनेमा की रफ्तार में पिछड़ चुकी फिल्म
फिल्म ‘कंट्रोल’ की कहानी अविनाश संपत की सोची हुई है। पटकथा इसकी विक्रमादित्य मोटवानी ने अविनाश के साथ मिलकर लिखी है और मशहूर स्टैंडअप कॉमेडियन सुमुखी सुरेश के असली टैलेंट यानी राइटिंग को भी इस फिल्म में अच्छा मौका मिला है। कभी वीडियोकॉन कंपनी में फन्नेखां नौकरी करने वाले निखिल द्विवेदी फिल्म के निर्माता हैं। हीरो बनने की कोशिश करने वह कॉरपोरेट दुनिया छोड़ फिल्मों में आए और अपनी इस फिल्म में उन्होंने दिखाया है कि कैसे कॉरपोरेट घराने अब दुनिया चलाना चाहते हैं। यहां एक कंपनी है मंत्रा। सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स पर खूब पैसे लुटाती है। कॉलेज में मिले नेला और जो मिलकर एक पेज बनाते हैं। व्लॉग्स और रील्स बनाते हैं। प्रोडक्ट्स का प्रचार करते हैं और इतना पैसा कमाते हैं कि मुंबई में अपना घर भी खरीद लेते हैं। दोनों का ब्रेकअप होता है। नेला अपनी लाइफ एआई के सहारे आगे बढ़ाना चाहती है।
क्लाइमेक्स में गच्चा खा गई फिल्म
फिल्म की नायिका नेला बांद्रा जैसे पॉश इलाके में घर भी खरीद लेती है लेकिन जिस एआई के जरिये वह जो को अपनी डिजिटल लाइफ से मिटाने की कोशिश कर रही है, वह उसकी पूरी लाइफ को अपने कंट्रोल में ले लेती है। फिल्म की कहानी का कॉन्सेप्ट बहुत अच्छा है। फिल्म को विक्रमादित्य मोटवानी ने अपने सिनेमैटोग्राफर प्रतीक शाह के सहयोग से शूट भी बहुत अच्छा किया है। स्क्रीनलाइफ फिल्मों में पूरी कहानी कुछ यूं बुनी जाती है कि आपको जो कुछ भी दिख रहा होता है वह फिल्म के किसी न किसी किरदार के मोबाइल या लैपटॉप पर चल रहा होता है। शुरू शुरू में ये थोड़ा अटपटा भी लगता है लेकिन फिल्म जल्द ही दर्शकों को अपने साथ बांध लेती है। फिल्म गोता लगाती है अपनी कहानी के क्लाइमेक्स पर आने के बाद? रोमांस, ड्रामा, एक्शन सब सही जा रहा होता है और स्क्रीनप्ले धोखा दे जाता है। फिल्म का अंत थोड़ा बेहतर सोचा जा सकता है।
ब्रांड विक्रमादित्य की कसौटी पर खरी नहीं
निर्देशन के मामले में विक्रमादित्य मोटवानी का कोई तोड़ ही नहीं है। उनकी सारी फिल्में, वे बॉक्स ऑफिस पर चली हों या न चली हों, बनी हर बार बढ़िया हैं। ये बात और है कि कुछ उनका अपने ऊपर जरूरत से ज्यादा आत्मविश्वास और कुछ उनके आसपास बसने लगी ‘यस सर’ वालों की बस्ती उनका खेल अक्सर खराब कर देती है। फिल्म ‘कंट्रोल’ कुल मिलाकर सौ मिनट की फिल्म है और गाने, मोंटाज, लफड़े, झगड़े निकाल दें तो विक्रमादित्य को बस 60 मिनट का ढांचा सॉलिड तैयार करना था। पर रील से रीयल पर आते ही मामला गोची हो गया है। अनन्या पांडे की तारीफ वह फिल्म की रिलीज से पहले सबसे ज्यादा करते रहे हैं। और, इस टेक्नो थ्रिलर को लेकर वह काफी निश्चिंत भी रहे हैं, लेकिन फिल्म ‘कंट्रोल’ उनकी ब्रांडिंग को कुछ खास मजबूत करने वाली फिल्म नहीं है। फोटो उनका भी फिल्म में एक फ्रेम में नजर आ ही जाता है।
अनन्या पांडे का करिश्मा बंधने का इंतजार
अनन्या पांडे की कद काठी और रंग रूप ओटीटी फिल्मों के लिए परफेक्ट होता जा रहा है। बड़े परदे पर उनका करिश्मा बंधने में समय काफी लग रहा है। पांच साल में वह करीब इतनी ही फिल्में बड़े परदे के लिए कर चुकी हैं। आखिरी बार ‘लाइगर’ में भी चुनरी लाल हो नहीं पाई थी। ‘खो गए हम कहां’ के बाद फिल्म ‘कंट्रोल’ में वह फिर से सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर बनी हैं और उनकी शख्सियत भी एक फिल्म अभिनेत्री के रूप में कम और एक सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर के तौर पर ही ज्यादा विकसित होती दिख रही है। रीयल से रील तक जाती उनकी ये कहानी बड़े परदे के लिए उनका रास्ता मुश्किल करती दिखने लगी है। विहान समत ने जो के रूप में अच्छा काम किया है। उनका अभिनय गौर करने लायक है। देविका वत्स और कामाक्षी भट ने फिल्म को साधे रहने भी अच्छी मदद की है और एआई से बने किरदार एलेन की आवाज बने अपारशक्ति खुराना के स्वर का आरोह-अवरोह भी प्रवाहित करता है।
अन्विता-स्नेहा की जुगलबंदी
फिल्म तकनीकी रूप से बहुत समृद्ध नहीं है। यशिका गोर की प्रोडक्शन डिजाइनिंग बहुत औसत है और सोशल मीडिया की कहानी होने के बावजूद श्रुति कपूर ने फिल्म के किरदारों के ड्रेसेज बहुत ही साधारण रखे हैं। जहान नोबल ने फिल्म को सौ मिनट में समेटने का काम अच्छा किया है। अरसे बाद अन्विता दत्त ने किसी फिल्म के गाने लिखे हैं। गाने ठीक ठाक हैं। स्नेहा खानवलकर का संगीत भी असर छोड़ने की कोशिश तो पूरी करता है। बाकी सब जी म्यूजिक के हवाले है।