किस दिशा से होता है पितरों का आगमन? जानें क्या कहता है वास्तु शास्त्र

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नई दिल्ली : पितरों के तर्पण में कुछ वास्तु नियम भी बहुत महत्वपूर्ण हैं, जिनके पालन से तर्पण का अधिकतम लाभ होता है और पितरों की आत्मा को शांति मिलती है।

प्रत्येक वर्ष भाद्रपद शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से पितृपक्ष की शुरुआत होती है, जिसका समापन आश्विन माह की अमावस्या को होता है। यह अवधि पितरों का आशीर्वाद पाने के लिए श्रेष्ठ मानी गई है। ब्रह्म पुराण में कहा गया है कि आश्विन माह के कृष्ण पक्ष में यमराज सभी पितरों को पृथ्वी पर छोड़ देते हैं, ताकि वे अपनी संतान से श्राद्ध के निमित्त भोजन ग्रहण कर लें। इस माह में श्राद्ध न करने वालों के पितर उन्हें श्राप देकर पितृ लोक चले जाते हैं। इससे आने वाली पीढ़ियों को कष्ट उठाना पड़ता है। इसे ही पितृदोष कहते हैं।

पितृजन्य समस्त दोषों की शांति के लिए पूर्वजों की मृत्यु तिथि के दिन श्राद्ध-कर्म किया जाता है। इसमें ब्राह्मणों को भोजन कराने का विधान है। गरुण पुराण में कहा गया है कि श्राद्ध-कर्म करने से संतुष्ट होकर पितर मनुष्यों के लिए आयु, पुत्र, यश, मोक्ष, स्वर्ग, कीर्ति, बल, वैभव, सुख, धन और धान्य वृद्धि का आशीष प्रदान करते हैं। मान्यता है कि श्राद्ध-कर्म द्वारा ही पुत्र अपने जीवन में पितृ ऋण से मुक्त हो सकता है। इसलिए पुत्र-पौत्रादि का यह कर्तव्य होता है कि वह पूर्वजों के निमित्त श्रद्धापूर्वक ऐसे शास्त्रोक्त कर्म करे, जिससे उन मृत प्राणियों को परलोक अथवा अन्य लोक में भी सुख प्राप्त हो सके।

क्या कहता है वास्तु
श्राद्ध के दिन घर का मुख्य द्वार स्वच्छ और आकर्षक होना चाहिए। मुख्य द्वार पर पुष्प और दीपक लगाना शुभ माना जाता है, जो सकारात्मक ऊर्जा और समृद्धि को आमंत्रित करता है।
वास्तुशास्त्र में दक्षिण दिशा पितरों की दिशा मानी गई है। पितृपक्ष में पितरों का आगमन दक्षिण दिशा से होता है। इसलिए दक्षिण दिशा में पितरों के निमित्त पूजा, तर्पण किया जाना अच्छा माना गया है।

मान्यता है कि जिन्होंने शरीर धारण किया है, चाहे वे पितृ हैं या गुरु, जो देव तुल्य हैं, उनकी पूजा सदैव दक्षिण, दक्षिण-पश्चिम और पश्चिम दिशा में की जा सकती है, पूर्व, पूर्वोत्तर या उत्तर में नहीं, क्योंकि ये ईश दिशाएं हैं।
तर्पण के समय ऐसा स्थान चुनें, जो शुद्ध और सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर हो। उस स्थान को अच्छी तरह साफ करें। स्वच्छता से तर्पण की क्रिया में दिव्यता और प्रभावशीलता बनी रहती है।
श्राद्ध-कर्म के दिन ब्राहमण को भोजन कराने से पहले दक्षिण दिशा की ओर मुख करके कुश, तिल और जल लेकर पितरों का तर्पण करें।

तर्पण के समय अग्नि को पूजा स्थल के आग्नेय यानी दक्षिण-पूर्व दिशा में रखना चाहिए। इस दिशा में अग्नि संबंधी कार्य करने से विजय और सफलता मिलती है, रोग-क्लेश दूर होते है तथा घर में सुख-समृद्धि आती है।

श्राद्ध भोज कराते समय ब्राह्मण को दक्षिण की ओर मुख करके बिठाना चाहिए। इससे पितृ प्रसन्न होते हैं।

श्राद्ध के दौरान घर में शांति और एकाग्रता बनाए रखें। किसी भी प्रकार की अशांति या झगड़े से बचें, क्योंकि इससे पितरों की आत्मा को शांति नहीं मिलती और श्राद्ध का प्रभाव कम हो सकता है।

वास्तु की मान्यता है कि पूर्वजों की तस्वीरों को भूलकर भी बेड रूम, सीढ़ियों वाले स्थान और रसोई घर में नहीं लगाना चाहिए। इससे पारिवारिक कलह के साथ सुख-शांति भंग होती है और घर में पितृदोष हो सकता है।
पितरों की तस्वीर मुख्य बैठक वाले कमरे की दक्षिण, दक्षिण-पश्चिम या पश्चिम दीवार की तरफ लगाना सबसे उपयुक्त एवं लाभदायक होता है।